कोरोना महामारी जैसे वैश्विक समस्या के बावजूद इन दिनों टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी ही चर्चा का विषय बने हुए है। बुधवार देर रात कथित रूप से उनपर हुए हमले से पूरे मीडिया और राजनीति जगत में हलचल मची हुई है। कुछ लोग इस हमले की कड़ी निंदा कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे ड्रामा बता रहे हैं। खास बात यह भी है कि अर्नब गोस्वामी मीडिया जगत में शीर्ष पत्रकारों में शुमार रखते हैं, बावजूद इसके मीडिया का एक धडा उनके साथ हुई घटना पर अफ़सोस या साथ खड़े होने की बजाय तरह-तरह की टिप्पणियां कर रहा है। कोई कह रहा ड्रामा है तो कोई कह रहा इसकी रॉ से जांच कराई जानी चाहिए।
इसी विषय पर दूरदर्शन के न्यूज़ चैनल डीडी न्यूज़ के वरिष्ठ संपादक और एंकर अशोक श्रीवास्तव (Twitter – AshokShrivasta6) से सरकारी हेल्पलाइन के फाउंडर वैभव मिश्रा (twitter – baibhawmishra) ने खास-बातचीत कर जानने का प्रयास किया कि आखिर एक पत्रकार के साथ हुई घटना को लेकर मीडिया इतना अलग-थलग क्यों है?
सवाल – अर्नब के साथ हुई घटना पर मीडिया दो धडों में क्यों बटा हुआ है ?
मीडिया दो धड़ों में आज से नहीं बल्कि मुझे लगता है शायद 2012 के बाद से ही बंट गया था। एक धड़ा लेफ्ट, मार्क्सवादी और नक्सली विचारधारा का समर्थन करता है। वहीं दूसरी तरफ ऐसे पत्रकार हैं जो राइट विंग का समर्थन करते हैं। मैं नहीं मानता कि मीडिया इस घटना के बाद से बंटा। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि बंटे हुए लोगों में ऐसे पत्रकार भी हैं जिनकी छवि राइट विंगर की है। ऐसे कथित राष्ट्रवादी पत्रकार भी आज ख़ामोश हैं, यही मुझे सबसे ज्यादा चुभती है।
मैं अगर सीधी सीधी बात कहूँ कि अगर लेफ्ट विंग के किसी पत्रकार के साथ ऐसा होता यानि जो दूसरी तरफ का धड़ा है, तो कल्पना कीजिए रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई या सिद्दार्थ वरदराजन जैसे पत्रकारों का स्टैंड क्या होता? जैसा कि हमने देखा भी कि हाल ही में सिद्धार्थ वरदराजन ने एक नहीं कई फ़ेक न्यूज फैलाई जिसे लेकर उनके ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। उस वक्त 160 से ज्यादा बुद्धिजीवी पत्रकार उनके पक्ष में खड़े हो गए थे। लेकिन मैं बड़ा हैरान हूं कि अर्नब के हुई घटना के बाद भी उनके साथ खड़े होने वाले पत्रकारों की गिनती नाम मात्र की है।
अर्नब की पत्रकारिता और उनके स्टाइल को आप पसंद या नापसंद कर सकते हैं, लेकिन आखिर में तो अर्नब भी एक पत्रकार ही हैं। एक चैनल के सर्वसर्वा हैं, संपादक हैं, अगर उनके ऊपर कुछ लोग हमला करते हैं तो सभी पत्रकारों को मिलकर आवाज़ उठानी चाहिए थी। आखिर, गौरी लंकेश की जब हत्या हुई थी, तब हम सभी ने उनके हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की आवाज उठाई। इसी तरह का हमला किसी और पत्रकार पर भी होता है तो ऐसे मामलों पर हम सबको साथ आना चाहिए, भले ही आपकी विचारधारा मिले या नहीं। लेकिन यहां पर मैं यही देख रहा हूँ कि ज्यादातर पत्रकार खामोश हैं।
सवाल – अर्नब के साथ हुई घटना पर मीडिया दो धडों में क्यों बटा हुआ है ?
मीडिया दो धड़ों में आज से नहीं बल्कि मुझे लगता है शायद 2012 के बाद से ही बंट गया था। एक धड़ा लेफ्ट, मार्क्सवादी और नक्सली विचारधारा का समर्थन करता है। वहीं दूसरी तरफ ऐसे पत्रकार हैं जो राइट विंग का समर्थन करते हैं। मैं नहीं मानता कि मीडिया इस घटना के बाद से बंटा। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि बंटे हुए लोगों में ऐसे पत्रकार भी हैं जिनकी छवि राइट विंगर की है। ऐसे कथित राष्ट्रवादी पत्रकार भी आज ख़ामोश हैं, यही मुझे सबसे ज्यादा चुभती है।
मैं अगर सीधी सीधी बात कहूँ कि अगर लेफ्ट विंग के किसी पत्रकार के साथ ऐसा होता यानि जो दूसरी तरफ का धड़ा है, तो कल्पना कीजिए रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई या सिद्दार्थ वरदराजन जैसे पत्रकारों का स्टैंड क्या होता? जैसा कि हमने देखा भी कि हाल ही में सिद्धार्थ वरदराजन ने एक नहीं कई फ़ेक न्यूज फैलाई जिसे लेकर उनके ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। उस वक्त 160 से ज्यादा बुद्धिजीवी पत्रकार उनके पक्ष में खड़े हो गए थे। लेकिन मैं बड़ा हैरान हूं कि अर्नब के हुई घटना के बाद भी उनके साथ खड़े होने वाले पत्रकारों की गिनती नाम मात्र की है।
अर्नब की पत्रकारिता और उनके स्टाइल को आप पसंद या नापसंद कर सकते हैं, लेकिन आखिर में तो अर्नब भी एक पत्रकार ही हैं। एक चैनल के सर्वसर्वा हैं, संपादक हैं, अगर उनके ऊपर कुछ लोग हमला करते हैं तो सभी पत्रकारों को मिलकर आवाज़ उठानी चाहिए थी। आखिर, गौरी लंकेश की जब हत्या हुई थी, तब हम सभी ने उनके हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की आवाज उठाई। इसी तरह का हमला किसी और पत्रकार पर भी होता है तो ऐसे मामलों पर हम सबको साथ आना चाहिए, भले ही आपकी विचारधारा मिले या नहीं। लेकिन यहां पर मैं यही देख रहा हूँ कि ज्यादातर पत्रकार खामोश हैं।
सवाल – अर्नब की घटना ने राजनैतिक रूप क्यों ले लिया, क्या यह मामला भाजपा बनाम कांग्रेस या पूरा विपक्ष बन गया है?
इस घटना का राजनीतिक रूप लेना स्वाभाविक सी बात है। हम जानते हैं कि विवाद तब खड़ा हुआ जब अर्नब ने कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा सोनिया गांधी को लेकर कुछ टिप्पणियां की। इसके बाद कांग्रेस पूरी तरह से अर्नब के खिलाफ खड़ी हो गई, तो मामले को राजनीतिक रूप लेना स्वाभाविक ही है। कांग्रेस मैदान में उतरी तो जाहिर सी बात है कि बीजेपी भी मैदान में उतरेगी। भाजपा के लोगों का यह कहना ठीक भी है कि देश में कई बुद्धिजीवी और स्वयं कांग्रेस के कई नेता देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री को लगातार गालियां देते हैं, उनके लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं तब कोई क्यों विरोध नहीं करता। मैं खुद आपको ऐसे ट्वीट दिखा सकता हूं जिसमें देश के पत्रकारों ने इस बात पर खुशी जताई है कि गृहमंत्री अमित शाह को स्वाइन फ़्लू हो गया। ऐसे ट्वीट हैं जिसमे पत्रकारों ने प्रधानमंत्री की मौत की दुआ मांगी, उनकी हत्या हो जाये इस तरह की उन्होंने दुआएं मांगी।
कांग्रेस के नेताओं और उनके समर्थकों ने कई रैलियों में प्रधानमंत्री के लिए ना जाने कितनी तरह की अशलील गालियां दीं। एक कांग्रेसी नेता ने तो पीएम की बुर्जुग मां तक को नहीं छोड़ा। तो ऐसे में भाजपा को यह मौका मिल गया काँग्रेस को यह याद दिलाने का कि उनके नेताओं को कैसी-कैसी गालियां दी गई हैं। आज जब कांग्रेस के कुछ लोग इसे एक महिला नेता के अपमान का मामला बोल रहे हैं तो भाजपा वाले सवाल उठा रहे हैं कि स्मृति ईरानी को लेकर यही कांग्रेस के नेता जब ओछी टिप्पणियां कर रहे थे तब उन्हें महिला सम्मान का ख्याल क्यों नहीं आया ?
पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मामला
महाराष्ट्र में दो संतों की निर्मम लिंचिंग से शुरू हुआ। महाराष्ट्र सरकार की नाक के नीचे सारी घटना हुई और राज्य सरकार और मीडिया ने इस मामले को दबाने की पूरी कोशिश की। अब यह अलग रूप लेता दिख रहा है।
सवाल – पालघर में संतों की हत्या पर सोनिया गांधी पर सीधे हमला बोलना कि वो इससे खुश हुई, क्या उचित था ?
अर्नब गोस्वामी ने जो सोनिया गांधी पर सीधा हमला बोला, उस बारे में मैं बहुत कुछ सीधे तौर पर नहीं कह सकता हूं। मैंने वह डिबेट नहीं देखी है, अब तक नहीं देखी है।उसके कुछ हिस्से जरूर देखे हैं। इस आधार पर मैं साफ तौर पर मानता हूं कि उसमें अर्नब ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, उससे बचा जा सकता था।
मैं मानता हूं कि मुश्किल से मुश्किल सवाल भी बेहद शालीनता से पूछे जा सकते हैं। मुश्किल से मुश्किल बात भी बहुत शालीन तरीक़े से कह सकते हैं, संयत भाषा में कह सकते हैं। मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि अर्नब जिस तरह की पत्रकारिता करते हैं, उनका जो स्टाइल है मैं उससे इत्तफ़ाक़ नहीं रखता। लेकिन यदि मैं अर्नब गोस्वामी की पत्रकारिता से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता, तो मैं रवीश कुमार की पत्रकारिता से भी इत्तेफ़ाक नहीं रखता, राजदीप की पत्रकारिता को भी सही नहीं मानता। रवीश हर चीज़ में जातिवाद ले आते हैं, अपनी सुविधा के अनुसार बड़े -बड़े मुद्दों को बिल्कुल गोल कर जाते हैं।जिस तरह से वो देश को तोड़ने वाली ताक़तों के समर्थन में उतर जाते हैं उनकी पत्रकारिता को भी मैं पसंद नहीं करता हूं। पर किसी की पत्रकारिता को पसंद या नापसंद करना अलग विषय है लेकिन पत्रकार की आज़ादी पर सवाल उठना बिल्कुल अलग विषय है। आखिर अभिव्यक्ति की आज़ादी रविश, राजदीप को है , उनको अपने स्टाइल की पत्रकारिता करने का हक है तो यह हक अर्णब को क्यों नहीं। अगर आप रविश को राजदीप, सिद्धार्थ वरदराजन को फेक न्यूज़ फैलाने तक की आज़ादी दे सकते हैं तो अर्नब के सवाल पूछने को लेकर आप उंगली क्यों उठाते हैं?
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए आज अंग्रेजी के जितने चैनल हैं उनमें अर्नब का चैनल अधिक व्यूवरशिप वाला है। इसका मतलब उनके दर्शक उन्हें पसंद कर रहे हैं इसलिए कौन सी पत्रकारिता या कौन सा स्टाइल किसी एंकर का अच्छा है, बुरा है उस पर उंगली उठाने का मुझे कोई हक़ नहीं है इसका निर्णय दर्शकों को करने दीजिए।हो सकता है मैं जिस तरह की पत्रकारिता करता हूँ वो भी बहुत सारे लोगों को पसंद नही होगी, तो अंतिम फ़ैसला तो हमारे दर्शक कर सकते हैं हम नहीं।
अर्नब का यह कहना कि सोनिया गाँधी संतों पर हुई हिंसा से खुश हुई हैं, इस बारे में तो मैं नहीं जानता, लेकिन वो दुखी हुई, कम से कम यह भी तो दिखता नहीं है। जिस तरह से उन्होंने बाटला हाउस एंकाउंटर पर दुःख प्रकट किया था, जिस तरह उन्होंने अन्य लिंचिंग की घटनाओं पर दुख प्रकट किया, पालघर के मामले में तो ऐसा अब तक कुछ नहीं दिखा है।
अब इस मुद्दे पर अगर अर्णब सवाल उठाते हैं तो यह बिल्कुल लाज़मी है क्योंकि महाराष्ट्र में कांग्रेस समर्थित सरकार है इसलिए इस घटना पर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का बोलना बहुत महत्वपूर्ण है।
सवाल – अर्नब के साथ हुई घटना पर आपकी व्यक्तिगत राय क्या है ?
मेरी व्यक्तिगत राय है कि अर्नब पर हमला सीधा-सीधा मीडिया की आज़ादी पर हमला है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है।मैं निजी तौर पर यह मानता हूं की अभिव्यक्ति की आज़ादी की लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए।परन्तु देश में ऐसे बड़े-बड़े बुद्धिजीवी हैं, पत्रकार हैं, जो कई सालों से हमें यह समझा रहे हैं कि मीडिया को हर तरह की आज़ादी है, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए। ये लोग उन लोगो के समर्थन में खड़े हुए जो “भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा-अल्लाह”,”जंग चलेगी-जंग- चलेगी, भारत की बरबादी तक”, जैसे नारे लगाते रहे हैं। “हिंदुत्व की क़ब्र खुदेगी एएमयू की छाती पर”, “सावरकर की कब्र खुदेगी एएमयू की छाती पर”, ऐसे नारे जब देश में लगे तब भी यही पत्रकार कह रहे थे कि यह उन लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी है। देश के प्रधानमंत्री को अपशब्द कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है? उनको चोर, उनको बन्दर, मानसिक रूप से विकलांग कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है? आरएसएस को आतंकवादी संगठन कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है? स्वतंत्रता सैनानी वीर सावरकर को नपुंसक, समलैंगिक कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है। आखिर यह कैसी आजादी है?
इस बात पर मुझे हैरत के साथ श़क होता है कि वास्तव में ये लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी के तरफदार हैं या किसी पार्टी का झंडा लेकर चलने वाले लोग हैं? अगर आपने इस देश में एक वर्ग को इतनी आज़ादी दे दी है कि वह सुप्रीम कोर्ट को हत्यारा कहे, देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाने वालों का समर्थन करे तो अर्नब गोस्वामी को अभिव्यक्ति की आज़ादी क्यों नहीं है? अर्नब एक पत्रकार हैं, सम्पादक हैं तो उनकी आजादी पर सवाल उठाने का, उनकी आज़ादी पर डाका डालने का न मुझे हक है न किसी और को। और जिन्होंने उन पर , उनकी पत्नी पर हमला किया वो अपराधी हैं जिनके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्यवाई होनी चाहिए।